सुप्रीम कोर्ट के निशाने परआरक्षण की सीट
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, जिसमें आईएएस, आईपीएस, और आईएफएस जैसे अधिकारियों का उल्लेख किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को समाप्त करने के प्रस्ताव को क्यों किया और इसमें बड़ी रैंक के अफसरों का उल्लेख क्यों किया गया, इस बारे में विस्तार से बताया जा रहा है।
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सुप्रीम कोर्ट में चर्चा
सुप्रीम कोर्ट में यह चर्चा चल रही थी कि क्या आंध्र प्रदेश के ईवी नैया मामले और पंजाब आरक्षण अधिनियम 2006 पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है। इस विचार में मुख्य न्यायाधीश, यानी सीजीआई डीवाई चंद्र चूट समेत सात जज शामिल थे। जस्टिस विक्रम नाथ ने सवाल उठाया कि जिन उप-जातियों को आरक्षण से फायदा मिला है और वे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, क्या उन्हें आरक्षण की सूची से बाहर नहीं किया जाना चाहिए। जस्टिस विक्रम नाथ की बात पर, जस्टिस बी आर गवई ने भी सहमति जताई, कहते हुए कि यदि किसी विशेष समुदाय की उप-जातियों को समाज में बेहतर अवस्थान मिल चुका है और उनका प्रदर्शन अच्छा हो गया है, तो उन्हें आरक्षण की सूची से बाहर कर देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ इस सवाल का उत्तर खोज रही है कि क्या राज्य अनुसूचित जातियों की पहचान कर सकता है, जो अधिक आरक्षण के लायक हैं। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने भी टिप्पणी की, कहते हुए कि पिछली जातियों के लिए सीटों का आरक्षण केवल संविधान की अनुमति से ही किया जा सकता है।
इस विचार में, पंजाब आरक्षण अधिनियम 2006 की चर्चा से शुरू होती है। इस अधिनियम के अनुसार, अनुसूचित जाति के अंतर्गत एक श्रेणी बनाई गई है, जिसमें वाल्मीकि और मजहबी सिखों को 50 प्रतिशत कोटा और प्राथमिकता प्राप्त होती है। 2010 में, पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किया था। इस मामले में, हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, जिसमें समानता के अधिकार की बात कही गई है। अब, पंजाब के एडवोकेट जनरल गुरमीत सिंह सुप्रीम कोर्ट में इस अधिनियम को वैध करने की मांग कर रहे हैं।
संविधान के अनुच्छेद 341 के अनुसार, जातियों और वर्गों को अनुसूचित जाति घोषित करने का अधिकार राष्ट्रपति को होता है। संविधान भी यह कहता है कि संसद किसी भी जाति या जनजाति को सूची में शामिल या बाहर कर सकती है।